डॉ. बालशौरि रेड्डी और हिन्दी प्रण


डॉ. बालशौरि रेड्डी और हिन्दी प्रण  


बात उस समय की है जब 'हिन्दी प्रचार सभा' के रजत जयंती के अवसर पर महात्मा गांधी 1946 में मद्रास आए थे| इसी सभा में आंध्र प्रदेश के एक गाँव से एक 18 वर्षीय युवक भी शामिल हुआ था| उस युवक की रुचि संभवत: सभा में कम और गांधीजी में ज्यादा थी| हाँ, वह युवक भी अन्य लोगों की तरह गांधीजी का ऑटोग्राफ भी लेना चाहता था| युवक ने गांधीजी का ऑटोग्राफ तो लिया, मगर खुशी के स्थान पर उसके चेहरे पर निराशा की लकीरों को पढ़ा जा सकता था| गांधीजी ने अपने ऑटोग्राफ में लिखा थाµ'मो क  गांधी'

इस ऑटोग्राफ को पाने के लिए युवक को पाँच रुपए खर्च करने पड़े थे| युवक को पाँच रुपए ख़र्च करने का मलाल नहीं था| लेकिन निराशा की बात यह थी कि वह इस ऑटोग्राफ को यदि अपने गाँववासियों को दिखाएगा, तो कोई भी उसे पढ़ नहीं सकता था| क्योंकि उसके गाँव में किसी को भी हिन्दी नहीं आती थी| साथ ही ऑटोग्राफ के अक्षर इतने गंदे थे कि युवक को लगा कि कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि ये अक्षर गांधीजी के हैं| पैसे भी लगे, काम भी नहीं हुआ| 

सभा का उद्घाटन हुआ| गांधीजी अपना भाषण देने के लिए आगे आए| उन्होंने कहा, 'बहुत जल्द हिन्दुस्तान आजाद होने जा रहा है| हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हिन्दी होगी| मैं युवा पीढ़ी से अपील करता हूँ कि वे अभी से हिन्दी सीखें ताकि हिन्दुस्तान के आजाद होते ही सारा राजकाज हिन्दी में कर सकें| अगे्रजी विलायत की भाषा है| वह कदापि हमारी राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती|' गांधीजी के ये शब्द युवक  के कानों में गूँजने लगे| युवक को गांधीजी का यह संदेश मंत्र जैसा प्रतीत हुआ| इस संदेश को सुनने के पश्चात्र अनायास युवक का विषाद हर्ष में बदल गया| उसी क्षण तेलुगुभाषी युवक ने 'हिन्दी' सीखने का प्रण लिया और विशारद, साहित्यरत्न और साहित्यालंकार की परीक्षाएं उत्तीर्ण की. हिंदी सीखने के लिए काशी और प्रयाग गए जहां उनका परिचय बड़े साहित्यकारों से हुआ। कल के तेलुगुभाषी युवक आज के हिन्दी और तेलुगु के यशस्वी साहित्यकार डॉ॰ बालशौरि रेड्डी जी  है. उनका सम्पूर्ण  जीवन हिंदी लेखन के प्रति समर्पित रहा... 


 साभार 
डॉ  गिरिराजशरण अग्रवाल



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